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कविता

विलाप

नरेंद्र जैन


(संदर्भ : दंगाग्रस्त भोपाल)

वनस्पतियों, फलों और
कोमल चीजों को काटता हुआ
जब प्रविष्ट होता है मनुष्य की देह में
तब विलाप कर रहा होता है चाकू
वह धार-धार रोता है
और दाँत पीसते हत्यारे मुस्कराते हैं
यातना बढ़ती है
और जले हुए कमरे में रखे
हारमोनियम से फूटती है एक
उदास धुन
जहाँ खून जम रहा है दिसंबर में
टोकरी में पड़े आलुओं की
भयग्रस्त आँखें निकल आई हैं
ईश्वर, अंततः
एक गुनाह ही साबित हुआ
जो मैंने किया
हे ईश्वर
अब तुझ से नहीं गढ़ी जाएगी
एक साफ-सुथरी उजली जगह
हे ईश्वर
अपना मलबा उठा
और बख्श मुझे


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